अपील क्या होती है तथा दोषसिद्धि से अपील के संदर्भ में कुछ विशेष बातें
Alok Aarya
भारतीय दंड प्रणाली में अपील का अधिकार प्रकरण के पक्षकारों को दिया जाता है। अपील का अधिकार कोई मूल अधिकार या नैसर्गिक अधिकार नहीं है अपितु यह अधिकार एक सांविधिक अधिकार है। यह ऐसा अधिकार जो किसी कानून के अंतर्गत पक्षकारों को उपलब्ध कराया जाता है। यदि किसी विधि में अपील संबंधी किसी प्रावधान का उल्लेख नहीं किया गया है तो ऐसी परिस्थिति में अपील का अधिकार प्राप्त नहीं होता है। किसी भी पक्षकार को अपील का अधिकार नैसर्गिक अधिकार की तरह नहीं मिलेगा। किसी व्यक्ति को अपील का अधिकार कानून के माध्यम से ही मिलता है न कि नैसर्गिक या फिर मानव अधिकारों के नाम पर।
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत अपील नाम का एक अध्याय दिया गया है। इस अध्याय में आपराधिक प्रकरणों में होने वाली अपील संबंधी समस्त प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। किसी भी आपराधिक प्रकरण में अपील कैसे होगी तथा कहां अपील नहीं होगी और कहां अपील होगी! इस संबंध में इस अध्याय में संपूर्ण विस्तारपूर्वक प्रावधान कर दिए गए हैं। इस अध्याय अपील की धारा 372 में प्रयुक्त पदावली इस बात पर जोर देती है कि जब तक अन्यथा उपबंधित न हो तब तक कोई भी अपील दायर नहीं की जा सकती।
इस धारा के उपबंध से यह स्पष्ट मालूम होता है की अपील संबंधी अधिकार न तो मौलिक अधिकार है और न ही अंतर्निहित अधिकार है अपितु यह एक ऐसा अधिकार है संविधि (Statute) द्वारा प्रदत किया जाता है।
दुर्गा शंकर मेहता बनाम रघुराज सिंह एआईआर 1954 उच्चतम न्यायालय 520 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि किसी व्यक्ति को किसी भी निर्णय के विरुद्ध अपील करने संबंधी अंतर्निहित शक्ति नहीं प्राप्त है। ऐसे अधिकार का उपयोग तभी किया जा सकता है जब उसे उक्त अधिकार संविधि द्वारा प्रदान किया गया है। भारत के उच्चतम न्यायालय के निर्णय से स्पष्ट कर दिया कि अपील का अधिकार कोई मौलिक अधिकार नहीं है।
लेखक इस लेख के माध्यम से दोषसिद्धि से होने वाली अपील के संदर्भ में कुछ विशेष बातों का उल्लेख कर रहा है।
दोषसिद्धि से अपील (धारा 374 दंड प्रक्रिया सहिंता)
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 374 के अंतर्गत दोषसिद्धि से अपील के संदर्भ में विस्तारपूर्वक उपबंध किए गए हैं। इस धारा में अपील की समस्त प्रक्रिया उपलब्ध है जो किसी अभियुक्त के किसी अभियोजन में दोषसिद्ध होने के उपरांत आवश्यक होती हैं। किसी भी अभियुक्त का विचारण आरंभिक न्यायालय द्वारा किया जाता है। इस आरंभिक न्यायालय के विचारण में यदि किसी अभियुक्त की दोषसिद्धि होती है ऐसी परिस्थिति में अभियुक्त को अपील का अधिकार प्राप्त होता है। किसी दोषसिद्धि में किस प्रकार से अभियुक्त अपील न्यायालय में अपील कर सकता है, इस हेतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 374 के अंतर्गत प्रावधान मिलते हैं।
धारा में दोषसिद्धि के विरुद्ध की जाने वाली अपीलों के संबंध में उपबंध दिए गए हैं। इस धारा के अनुसार जो कोई व्यक्ति-
1) उच्च न्यायालय द्वारा असाधारण आरंभिक दांडिक अधिकारिता के अंतर्गत किए गए विचारण में दोषसिद्ध पाया गया है तो वह उक्त दोषसिद्धि के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है।
2) यदि ऐसा व्यक्ति सेशन न्यायाधीश अपर सेशन न्यायाधीश द्वारा किए गए विचारण या अन्य न्यायालय द्वारा किए गए विचारण में दोषसिद्धि के परिणाम स्वरूप 7 वर्ष या उससे अधिक अवधि के कारावास से दंडित किया गया है तो वह उच्च न्यायालय में अपील कर सकेगा।
उपर्युक्त उपबंधों के सिवाय-
1) कोई व्यक्ति जो महानगर मजिस्ट्रेट या सहायक सेशन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग या मजिस्ट्रेट द्वितीय वर्ग द्वारा किए गए विचारण में दोषसिद्ध किया गया है अथवा
2) जो धारा 325 के अधीन दंडित किया गया है।
3) जिसके बारे में किसी मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 360 के अधीन आदेश दिया गया है या दंडादेश पारित किया गया है तो उक्त दोषसिद्धियों के विरुद्ध अपील सेशन न्यायालय में हो सकेंगी। उच्च न्यायालय अपील को कब संक्षेपता खारिज कर देता है ! जब मामले में तार्किक बिंदु स्पष्ट हो तथा पारस्परिक विरोधाभासी स्थिति से मुक्त हो तो उच्च न्यायालय द्वारा अपील को संक्षेपता खारिज किया जाना उचित होता है। उल्लेखनीय है कि सेशन न्यायालय में अतिरिक्त सेशन तथा सहायक सेशन न्यायालय भी सम्मिलित माने जाएंगे।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम जगदीश सिंह के मामले में कहा गया है कि जब कभी उच्च न्यायालय द्वारा आपराधिक अपील का निस्तारण किया जाए तो न्यायालय को इसके कारणों का उल्लेख करना आवश्यक है।
मलिक प्रताप सिंह बनाम खान मोहम्मद के वाद में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां उन्मोचन का प्रश्न है इसे मूल रूप से निर्णय नहीं माना जाता है इसलिए जब मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त के उन्मोचन का आदेश पारित किया जाए तो उन्मोचन आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकेगी किंतु उच्च न्यायालय में मजिस्ट्रेट द्वारा पारित उन्मोचन के आदेश को अपास्त कर सकता है।
नारायण सिंह बनाम मध्यप्रदेश राज्य के मामले में विचारण न्यायालय ने अपने निर्णय में अभियुक्त की दोषसिद्धि अनुचित त्रुटिपूर्ण अथवा गलत अवधारणाओं के आधार पर की थी जिसे अपील में उच्च न्यायालय द्वारा उलट दिया गया। इसके विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील हुई, उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को उचित मानते हुए अपीलार्थी की दोषमुक्ति को न्यायोचित माना क्योंकि दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की सुनवायी में उच्च न्यायालय को स्वयं के तर्क लगाकर मामले के रिकॉर्ड के आधार पर स्वतंत्र निर्णय लेना अनिवार्य है।
पश्चिम बंगाल राज्य बनाम बाबू चक्रवर्ती के वाद में राज्य द्वारा अभियुक्त की दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील में पुलिस द्वारा अपने कर्तव्य में लापरवाही बरती जाने के लिए उसके विरुद्ध उच्च न्यायालय ने अवक्षेप टिप्पणी (Strictures) पारित करते हुए प्रसन्नता दर्शाई थी तथा राज्य को निर्देश दिए गए थे कि वह अभियुक्त को ₹100000 की राशि प्रतिकर के रूप में दें तथा वसूली पुलिस कथित दोषी पुलिस अधिकारियों में से किसी एक से सुनिश्चित करें।
उच्च न्यायालय के इस आदेश के विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने निश्चित किया कि उच्च न्यायालय द्वारा पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध अवक्षेप पारित करने का कोई औचित्य नहीं था क्योंकि उन्हें सुनवायी का अवसर प्रदान नहीं किया गया था।
न्यायालय ने कहा कि पुलिस अधिकारियों का दुराशय साबित नहीं होने के कारण उनके विरुद्ध की गयी टिप्पणी निर्णय से हटाए जाने योग्य थी क्योंकि उनकी कार्यवाही को मादक औषधि तथा स्वापक पदार्थ अधिनियम एनडीपीएस एक्ट की धारा 69 के अंतर्गत विधिक संरक्षण प्राप्त था और उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन सदभावना पूर्वक किया था।
अख्तरी बी बनाम बिहार राज्य एआईआर 2001 उच्चतम न्यायालय 1528 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया की अपील अभियुक्त का सांविधिक अधिकार होने के कारण अपील की मियाद समाप्त होने पर विचारण न्यायालय के निर्णय में आदेश को अन्तिमता प्राप्त नहीं होती है। अतः इस दृष्टि से अभियुक्त के दंडित होने के बावजूद उसका विचारण जारी रहता है, ऐसा माना जाता है।
अतः विशेषतः जहां अभियुक्त जेल में बंद हो तो उच्च न्यायालय से अपेक्षित है कि वे उसकी अपील का निपटारा यथासंभव शीघ्रता से करें और किसी भी दशा में 5 वर्ष से अधिक न हो। किन्हीं कारणों से अपील का निपटारा 5 वर्षों में नहीं होता है और ऐसे निपटारे में अभी तक कोई संभावना नहीं हो तो अभियुक्त को उचित शर्तों सहित जमानत पर छोड़ दिया जाना चाहिए।
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