क्या होती है कम गंभीर अपराधों में न्यायालय की संज्ञान (cognizance) लेने की परिसीमा अवधि (Limitation)

Alok Aarya


किसी भी सिविल प्रकरण में परिसीमा अधिनियम 1961 के अधीन प्रकरण को परिसीमा से बांधा गया है। इसी प्रकार दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत कम गंभीर प्रकृति के अपराधों को परिसीमा की अवधि से बांधने का प्रयास किया गया है। दंड विधि का यह सामान्य सिद्धांत है कि अपराध कभी समाप्त नहीं होता और यदि किसी व्यथित पक्षकार के विरुद्ध कोई अपराध घटित हुआ है तो ऐसी परिस्थिति में उस व्यथित पक्षकार को न्याय मिलना ही चाहिए।

परंतु छोटे अपराध तथा कम गंभीर प्रकृति के अपराधों के संबंध में परिसीमा की अवधि निर्धारित की गई है। कितने समय तक न्यायालय किसी अपराध का संज्ञान लेगा तथा कितने समय के बाद न्यायालय किसी अपराध का संज्ञान नहीं लेगा। इस लेख के माध्यम से दाण्डिक मामलों में परिसीमा से संबंधित समस्त प्रावधानों का उल्लेख किया जा रहा है जो दंड प्रक्रिया संहिता 1973 अध्याय 36 से संबंधित है। 

आपराधिक मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान करने की परिसीमा 

समय बीतने के साथ साक्षियों के स्मृति धूमिल पड़ती है तथा अभिसाक्ष्य कमजोर होते जाते हैं। अपराध के प्रति समाज की गंभीरता कमजोर हो जाती है तथा अपराधी के मन में दंड का भय कम हो जाता है। इस उद्देश्य से सन 1973 की दंड प्रक्रिया संहिता लागू होने के पूर्व अपराधों के अभियोजन की परिसीमा संबंधी नियम विशेष स्थानीय विधियों द्वारा निर्धारित किए गए थे, परंतु वह सभी जगह एक समान लागू नहीं थे इन्हीं सब कारणों से सन 1973 की दंड प्रक्रिया संहिता में अपराधों के संज्ञान के लिए निश्चित सीमा निर्धारित की गई ताकि अपराध की गंभीरता बनी रहे तथा न्याय निर्णय तत्परता से हो सके। 

सीआरपीसी 1973 Crpc के प्रस्तुत अध्याय 36 में अपराधों की गंभीरता के अनुसार मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लिए जाने की विभिन्न परिसीमा निर्धारित की गई है। परिसीमा का सिद्धांत कम गंभीर अपराधों के प्रति लागू किया गया है जो केवल जुर्माने या 3 वर्ष तक के कारावास के दंड से दंडनीय हैं। गंभीर अपराधों के लिए संज्ञान के लिए परिसीमा लागू नहीं की गई। 

धारा 468 सीआरपीसी 1973 अपराधों की परिसीमा से संबंधित दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा है। इस धारा में अपराधों के संज्ञान हेतु निश्चित परिसीमा निर्धारित की गई है जो विभिन्न अपराधों के लिए दंड की अवधि पर आधारित है। इस धारा के अनुसार परिसीमा काल समाप्त हो जाने के पश्चात अपराध का संज्ञान लेना वर्जित होगा अर्थात उपधारा 2 में दी गई परिसीमा अवधि समाप्त हो जाने के पश्चात मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान नहीं किया जाएगा।

पंजाब राज्य बनाम सरवन सिंह एआईआर 1981 सुप्रीम कोर्ट 722 के प्रकरण में कहा गया है कि यदि विचारण परिसीमा द्वारा वर्जित पाया जाता है तो समस्त कार्यवाही अस्तित्वहीन मानी जायेगी। रंजन पटेल बनाम उड़ीसा राज्य के प्रकरण में कहा गया है कि जहां दोषसिद्धि के विरुद्ध की गई अपील में अपील न्यायालय ने अभियोजन को कालाबाधित पाया हो ऐसे अभियोजन के अधीन की गई दोषसिद्धि को अपास्त किया जाएगा। इस धारा में परिसीमा संबंधी उपबंध ऐसे अपराधों के प्रति लागू नहीं होंगे जो 3 वर्ष से अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय नहीं है। 

यदि कोई अपराध 7 वर्ष के कारावास की अवधि से दंडनीय हो तो उक्त दशा में धारा 468 के प्रावधान लागू नहीं होंगे। यह बात तय है कि दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 468 केवल 3 वर्ष तक के दंड के अपराधों के संबंध में उल्लेख कर रही है अर्थात ऐसे अपराध जिनमें केवल 3 वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है तथा उन अपराधों के संबंध में ही धारा 468 लागू होती है। 

3 वर्ष से ऊपर के कारावास के अपराध के संबंध में धारा 468 लागू नहीं होती है यदि कोई अपराध 3 वर्ष से अधिक के कारावास से संबंधित है तो ऐसे अपराध के संबंध में कोई परिसीमा अवधि नहीं होगी 3 वर्ष से अधिक कारावास के अपराध का संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा किसी भी समय किया जा सकता है। 

इन 3 वर्षों के अपराध की परिसीमा के लिए समय का निर्धारण किया गया है। धारा 468 की उपधारा (2) के अनुसार- 

1)- ऐसे अपराध जो केवल जुर्माने से दंडनीय हैं उनका संज्ञान करने की अवधि 6 माह तक की होगी- 

2)- ऐसे अपराध जिनमें 1 वर्ष तक का कारावास हो सकता है उन अपराधों के संबंध में मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान किए जाने की अवधि 1 वर्ष तक की होगी अर्थात कोई मजिस्ट्रेट इस प्रकार के अपराध का संज्ञान जिसमें 1 वर्ष तक के दंड का प्रावधान रखा गया है 1 वर्ष बीत जाने तक ले सकता है। 

3)- ऐसे अपराध जिनमें 3 वर्ष तक के कारावास का उल्लेख किया गया है उन अपराधों में मजिस्ट्रेट द्वारा 3 वर्ष तक परिसीमा की अवधि रखी गई है अर्थात मजिस्ट्रेट इन 3 वर्षों में कभी भी अपराध का संज्ञान कर सकता है परंतु इन 3 वर्ष के बीत जाने के बाद किसी भी ऐसे अपराध का संज्ञान नहीं लिया जाएगा जो 3 वर्ष से अनधिक के कारावास से संबंधित अपराध है। 

हरनाम सिंह बनाम एवरेस्ट कंस्ट्रक्शन कंपनी 2004 क्रिमिनल लॉ जनरल 4178 सुप्रीम कोर्ट के वाद में प्रत्यर्थीयों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 420 /471/ 474 के अंतर्गत गंभीर आरोप थे। जो सभी 3 वर्ष से अधिक कारावास से दंडनीय है। विचारण न्यायालय ने निर्णय लिया कि इस प्रकरण में धारा 468 के परिसीमा संबंधित उपबंध लागू नहीं होते और प्रकरण का संज्ञान किया जा सकता है। प्रकरण को इस आधार पर उच्च न्यायालय में विप्रेषित किया गया कि निचली अदालत द्वारा परिवाद को परिसीमा के प्रश्न पर विचार किए बिना खारिज कर दिया जाना न्यायोचित नहीं। 

उच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 195 के उपबंधों को विचार में लिए बिना परिवाद को खारिज कर दिया। अपील में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिश्चित किया कि परिवाद धारा 195 के अंतर्गत परिसीमा बाधित नहीं होने के कारण इस मामले में 468 के अधीन परिसीमा समाप्ति के कारण संज्ञान के वर्जन का नियम लागू नहीं होगा। 

महेंद्र नाथ दास बनाम लोक अभियोजक 1979 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1465 कलकत्ता के प्रकरण में कहा गया है कि धारा 468 के अपराधों के संज्ञान की परिसीमा संबंधी उपबंध में किसी प्रकार की संवैधानिक अवैधता नहीं है तथा वे संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित उचित विचारण के पूर्णतः अनुकूल है। यह परिसीमा अधिनियम के प्रावधानों के विरुद्ध भी नहीं है। 

रमेश तथा अन्य तमिलनाडु राज्य एआईआर 2005 सुप्रीम कोर्ट 1989 के वाद में अभियुक्तों के विरुद्ध दहेज प्रताड़ना तथा क्रूरता भारतीय दंड संहिता की धारा 498A और 406 तथा दहेज निषेध अधिनियम 1961 की धारा (4 ) के आरोप थे। इस हेतु परिवादिनी पत्नी द्वारा 3 वर्ष के भीतर परिवाद दायर किया गया था जिसका अभियोजन की ओर से धारा 468 के अधीन परिसीमा बाधित होने के आधार पर विरोध किया लेकिन न्यायालय ने विनिश्चित किया कि प्रकरण के अन्वेषण तथा आरोप पत्र दाखिल करने में विलंब के कारण परिवाद का सम्यक संज्ञान नहीं किया जा सका इसके अलावा अभियुक्त पति ने भी मामले को अन्य स्थान पर अंतरित की जाने हेतु पिटीशन दायर किया था जिसके कारण भी संज्ञान लिए जाने हेतु समय सीमा की अनदेखी करते हुए उसका विचारण किया जाना न्यायोचित था। 

जापानी साहू बनाम चंद्रशेखर एआईआर 2007 उच्चतम न्यायालय 2762 एक महत्वपूर्ण मामले में अभिकथन किया गया कि "आपराधिक विधि का यह स्थापित सिद्धांत है कि अपराध कभी मरता नहीं है अर्थात अपराधी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही में परिसीमा समाप्त होने की बाधा कभी आड़े नहीं आएगी। इसलिए परिसीमा अधिनियम 1963 के प्रावधान आपराधिक कार्यवाही के प्रति लागू नहीं होते हैं जब तक इस का विशेष उल्लेख नहीं किया गया हो। गंभीर प्रकृति के अपराधों के लिए अभियोजन राज्य द्वारा संस्थित किया जाता है तथा न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह केवल विलंब के आधार पर उसे खारिज कर दे, अतः न्यायालय में प्रकरण ले जाने में विलंब मामले को खारिज कर देने का आधार नहीं माना जा सकता भले ही निर्णय तक पहुंचने के लिए इस पर सुसंगत परिस्थिति के रूप में विचार किया जा सकता है।" 

परिसीमा काल का प्रारंभ कब होता है 

दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत धारा 468 के अधीन परिसीमा काल का निर्धारण कर दिया गया है। फिर प्रश्न यह आता है कि धारा 468 में वर्णित परिसीमा अवधि की गणना किस दिन से प्रारंभ होगी। परिसीमा काल का प्रारंभ अपराध की तिथि से ही माना जाएगा परंतु धारा 469 में इसके दो अपवाद दिए गए हैं- 

1)- जहां अपराध से पीड़ित व्यक्ति या पुलिस को यह ज्ञात न हो कि अपराध कब गठित हुआ हो तो जिस दिन प्रथम बार ऐसे अपराध की जानकारी होती है उस दिन से परिसीमा अवधि प्रारंभ होगी। 

2)- यदि ज्ञात नहीं है कि अपराध किसने किया है तो परिसीमा की अवधि उस दिन से प्रारंभ होगी जिस दिन प्रथम बार अपराधी का पता चलता है। 

राजस्थान राज्य बनाम संजय कुमार एआईआर 1998 सुप्रीम कोर्ट 1919 का मामला कॉस्मेटिक्स एंड ड्रग्स अधिनियम के अंतर्गत था। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने संबोधित किया कि 3 वर्ष से कम के कारावास से दंडनीय अपराध के मामले में परिसीमा प्रारंभ होने की तिथि अपराध की तारीख/ अपराध की जानकारी की तारीख/ अपराधी का पता चलने की तारीख होगी। औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम के अधीन अपराधों के मामले में शासकीय विश्लेषक की रिपोर्ट की तारीख अपराध की जानकारी प्रारंभ होने की तारीख है न की औषधि का नमूना लेने की तारीख। 

परिसीमा की अवधि से उस समय को हटाया जाना जिस का अपवर्जन किया जा सकता है- दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 अधीन वर्णित परिसीमा की अवधि में जो समय दिया गया है उस समय में से कुछ समय का अपवर्जन किया जा सकता है अर्थात कुछ समय को कम किया जा सकता है इस संबंध हेतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 470 में प्रावधान किए गए हैं 

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 470 

प्रस्तुत धारा में उन दशाओं का वर्णन है जिनमें परिसीमा अवधि से उल्लेखित प्रयोजन हेतु व्यतीत हुए समय का अपवर्जन( exclude) किया जाएगा- यह उपबंध केवल तभी लागू होगा जब अभियोजन सद्भावनापूर्वक उन्हीं तथ्यों पर आधारित हो तथा न्यायालय अधिकारिता के दोष के कारण ऐसे ही किसी अन्य कारण से उसे ग्रहण करने में असमर्थ हो। यह सिद्ध करने का भार अभियोजन पक्ष पर होगा कि उसने अभियोजन की कार्यवाही सद्भावना से पूरी सावधानी से की है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 470 के अंतर्गत परिसीमा की गणना के लिए व्यादेश या स्थगन आदेश की अवधि अपवर्जित (exclude) की जा सकती है। 

इसी प्रकार जिस अवधि में अभियुक्त भारत से अनुपस्थित रहा हो तथा वह फरार रहा हो या उसने स्वयं को छुपाए रखा हो, इस धारा के अनुसार परिसीमा की अवधि से अपवर्जित किया जा सकेगा। धारा 471 के अधीन जिस तारीख को न्यायालय बंद होगा उस तारीख का भी अपवर्जन किया जा सकता है तथा चालू रहने वाले अपराधों के संबंध में धारा 472 के अधीन प्रावधान किए गए हैं। निरंतर जारी रहने वाले अपराध की दशा में अपराध चालू रहने के दौरान हर समय नई परिसीमा अवधि तय होती है, इसलिए जिस समय अपराध समाप्त होता है उस समय से परिसीमा की अवधि की गणना की जाएगी। 

राज बहादुर सिंह बनाम भविष्य निधि निरीक्षक एआईआर 1986 सुप्रीम कोर्ट 1688 के मामले में अभिनिश्चित किया गया कि कर्मचारी द्वारा प्रदत्त भविष्य निधि की योगदान राशि का भुगतान नहीं किया जाना निरंतर चालू रहने वाला अपराध है अतः इस अपराध के प्रति धारा 468 के परिमाण संबंधी उपबंध लागू नहीं होंगे अपितु धारा 472 के उपबंध लागू होंगे। 

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