HC अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारः गर्भपात और संतान का अधिकार
उड़ीसा हाईकोर्ट ने मंगलवार को एक बलात्कार पीड़िता को 20 सप्ताह के गर्भकाल के बाद गर्भपात की अनुमति दी और कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संतान और गर्भपात का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। कोर्ट ने अपने फैसले मे मीरा संतोष पाल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2017) 3 SCC 462 में भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रजनन के विपल्प का अधिकार भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक आयाम है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद -21 के तहत समझा जाता है।
मौजूदा मामले में, पीड़िता 21 सप्ताह की गर्भवती थी, मौजूदा मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट (एमटीपी एक्ट) के अनुसार, 20 सप्ताह से अधिक की गर्भावस्था की चिकित्सा समाप्ति की अनुमति नहीं है। जस्टिस एसके मिश्रा और सावित्री राठो की खंडपीठ ने हालांकि, राज्यसभा में लंबित मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (अमेंडमेंट) बिल, 2020 का हवाला दिया, जिसके तहत 24 सप्ताह तक की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दी गई है। हालांकि खंडपीठ ने यह भी कहा कि विधेयक पारित होना बाकी है और इसे कानून नहीं माना जा सकता है।
पीठ ने कहा, "ऐसा प्रतीत होता है कि चिकित्सा प्रौद्योगिकी की प्रगति के कारण सुरक्षित गर्भपात की अवधि की बाहरी सीमा को बढ़ाने के गुंजाइश है, विशेष रूप से कमजोर महिलाओं और ऐसे मामलों में, जिनमें भ्रूण की असामान्यता के बारे में देरी से पता चलता है। असुरक्षित गर्भपात और इसकी जटिलताओं के कारण होने वाली मातृ मृत्यु दर और रुग्णता को कम करने के लिए महिलाओं के लिए कानूनी और सुरक्षित गर्भपात की उपलब्धता आवश्यकता है।"
बेंच ने कहा भारत ने 1993 में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन के लिए समझौते (CEDAW) को मंजूरी दी है और एक अंतरराष्ट्रीय दायित्व के तहत उसे यह सुनिश्चित करना है कि प्रजनन के विकल्प का महिलाओं का अधिकार सुरक्षित रहे। पीठ ने कहा, "इसमें कोई संदेह नहीं है कि संविधान के अनुच्छेद -21 के तहत संतान और गर्भपात का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, यह जीवन के अधिकार का एक आयाम है।"
पीठ ने उन मामलों का भी उल्लेख किया, जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने 24 सप्ताह के बाद भी गर्भपात की अनुमति दी है। एक्स और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, (2017) 3 एससीसी 458, में सुप्रीम कोर्ट ने 24 सप्ताह की गर्भावस्था की समाप्ति की अनुमति दी थी। उस मामले में याचिकाकर्ता के जीवन के गंभीर जोखिम था शामिल था।
एक्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2016) 14 SCC 382 में महिला के जीवन को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने रेप पीड़िता के 23-24 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति दी थी खंडपीठ ने पीड़िता की गर्भावस्था की समाप्ति के लिए सहमति लेने पर जोर दिया। (सुचिता श्रीवास्तव अन्य बनाम चंडीगढ़ प्रशासन) कोर्ट ने कहा कि भले ही मामले में पीड़िता नाबालिग है, लेकिन प्रचुर सावधानी के रूप में उसकी सहमति जरूर दर्ज की जानी चाहिए।
कोर्ट ने पीड़ित की गर्भावस्था को समाप्त करने की इच्छा को दर्ज किया और आवेदन की अनुमति दी। बेंच ने मेडिकल बोर्ड को पीड़िता की गर्भावस्था की चिकित्सा समाप्ति का निर्देश दिया, बशर्ते कि उसके जीवन को कोई खतरा न हो। न्यायालय ने आदेश पारित करने के निम्नलिखित कारण भी बताए-
-अविवाहित मां (पीड़ित लड़की), नाबालिग है और उसे अवांछनीय गर्भावस्था के अपयश से गुजरना पड़ा है। यह उसके शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा पैदा करेगा। यह उसके भविष्य की शिक्षा की संभावनाओं को भी प्रभावित करेगा।
-नाबालिग पीड़िता को जिस सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ेगा, वह बहुत ज्यादा है। इस मामले में याचिकाकर्ता और उसकी बेटी बहुत कमजोर तबके से हैं।
-बच्चे को जिस सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ेगा, वह भी चिंता का विषय है। बच्चे को निश्चित रूप से तिरस्कार के साथ देखा जाएगा और उसके साथियों द्वारा उसे एक अवांछनीय बच्चे के रूप में देखा जाएगा।
-हालांकि कानून (1971 के अधिनियम के अनुसार) 20 सप्ताह के बाद गर्भावस्था की समाप्ति अनुमति नहीं देता है, केंद्र सरकार ने इस अवधि को 24 सप्ताह तक बढ़ाने के लिए एक विधेयक पेश किया है। 2020 के संशोधन अधिनियम के तर्कों के विवरण और उद्देश्य से, यह स्पष्ट है कि चिकित्सा विज्ञान के वर्तमान विकास ने गर्भावस्था समाप्ति की अनुमेय बाहरी सीमा को बढ़ा दिया है, जिससे अधिनियम की धारा 3 के प्रावधानों में संशोधन अनिवार्य बना दिया है।
-इस मामले में चिकित्सा समिति ने यह भी कहा है कि पीड़ित के मानसिक स्वास्थ्य पर भविष्य में प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
-समिति ने 1971 के अधिनियम की धारा -3 के मद्देनजर समाप्ति की सिफारिश नहीं की है, लेकिन यह नहीं कहा है कि इस स्तर पर गर्भावस्था को समाप्त करने से पीड़ित लड़की के जीवन को कोई खतरा होगा। संबंधित खबर राजस्थान उच्च न्यायालय ने हाल ही में निर्देश दिया था कि "टालने के अधिकार" को संविधान के अनुच्छेद 21 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। उस मामले में, एक नाबालिग का यौन उत्पीड़न किया गया था और वह गर्भवती हो गई थी। उसने गर्भपात के लिए जिला न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। जिला न्यायालय ने आवेदन को सुनवाई योग्य नहीं माना क्योंकि उसकी गर्भावस्था 20 सप्ताह से अधिक हो गई थी। नाबालिग ने उच्च न्यायालय में अपील की।
मामले में अदालत ने रेप पीड़िता को उसकी इच्छा के खिलाफ गर्भ को जारी रखने का आदेश देने के बाद उसे होने वाले सामाजिक कलंक, पछतावे की भावना और गंभीर मानसिक स्थिति को ध्यान में रखा और आवेदन की अनुमति दी और कहा कि पीड़िता के जीवन का अधिकार भ्रूण के जीवन का अधिकार से प्रबल है। न्यायालय ने अधिकारियों के लिए भी दिशानिर्देशों जारी किए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण मामला दोहराया न जाए।
केरल हाईकोर्ट ने भी कहा था कि प्रजनन के विकल्प का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक आयाम है। गर्भावस्था समाप्ति की अनुमति देते हुए अदालत ने डॉक्टरों को डीएनए पहचान के लिए भ्रूण के उतकों को रखने का निर्देश दिया था।
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